मीराबाई की रचना
को विरहिणी को दुःख जाणै हो ।।टेक।।
जा घट बिरहा सोई लखि है, कै कोई हरि जन मानै हो।
रोगी अन्तर वैद बसत है, वैद ही ओखद जाणै हो।
विरह करद उरि अन्दर माँहि, हरि बिन सब सुख कानै हो।
दुग्धा आरत फिरै दुखारि, सुरत बसी सुत मानै हो।
चातग स्वाँति बूंद मन माँहि, पिव-पिव उकताणै हो।
सब जग कूडो कंटक दुनिया, दरध न कोई पिछाणै हो।
मीराँ के पति आप रमैया, दूजा नहिं कोई छाणै हो।।
मीराबाई