
आरजू तमाम पिघलने लगी हैं,
लो और एक शाम फिर से ढलने लगी है,
हसरत-ए-मुलाकात का शौक है बस,
ये ज़िद भी तो हद से गुजरने लगी है |
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आरजू तमाम पिघलने लगी हैं,
लो और एक शाम फिर से ढलने लगी है,
हसरत-ए-मुलाकात का शौक है बस,
ये ज़िद भी तो हद से गुजरने लगी है |