पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए ।
शख्सियत ए “लख्ते-जिगर” कहला न सका ।
जन्नत के धनी “पैर” कभी सहला न सका ।
दुध पिलाया उसने छाती से निचोड़कर,
मैं “निकम्मा, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका।
बुढापे का “सहारा हूँ “अहसास” दिला न सका
पेट पर सुलाने वाली को “मखमल, पर सुला न सका ।
वो “भूखी, सो गई “बहू, के “डर से ,
एकबार मांगकर
मैं “सुकुन के “दो, निवाले उसे खिला न सका ।
नजरें उन “बुढी, “;आंखों से कभी मिला न सका ।
वो “दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका ।
जो हर “जीवनभर” “ममता, के रंग पहनाती रही मुझे
उसे, ईद/होली पर दो जोड़ी, कपडे सिला न सका ।
बिमार बिस्तर से उसे “आराम दिला न सका ।
“खर्च के डर से उसे बड़े अस्पताल, ले जा न सका ।
“माँ” ने बेटा कहकर “दम,तौडने के बाद से अब तक सोच रहा हूँ,
“दवाई, इतनी भी ” महंगी, न थी के मैं ला ना सका ।
माँ तो माँ होती है भाईयों माँ अगर कभी गुस्से मे गाली भी दे तो उसे उसकी “दुआ” समझकर भूला देना चाहिए